जमादारिन का स्वर उसी समय बदल गया । उसने मुझे देखा ही न था; नहीं तो शायद इस बेरहमी से न मारती । बोली, आप नहीं जानतीं बहन जी, यह खूनी औरत है, अपने बच्चे को मार डाला है इसने ।
मैंने कहा, उसके अपराध की सजा तो कानून से छोटी सजा से लेकर फांसी तक की हो सकती है । तुम्हारा काम तो उसे अपनी देख-रेख में बन्द रखना भर है । तुम वही करो । सजा का काम देने वालों पर छोड़ दो ।
वह गुनहखाने में बन्द कर दी गई । सब लोग अपने-अपने काम में लग गए मगर मुझे उस औरत की याद न भूली । मैं उस गुनहखाने की तरफ गई । लकड़ी का दरवाजा खुला था । वह छड़ के दरवाजे में बन्द थी । मैं अंदर आँगन में गई तो देखा, वह औरत अभी उसी प्रकार बैठी थी, रोटी और दाल उसने छुई भी न थी । मैंने उससे पूछा, तुमने खाया क्यों नहीं?" खाना खा लो ।
उसने मेरी तरफ देखा । फिर उसकी आँखों में आँसू भर आए । मेरा भी जी भर आया । मैंने कहा, तुम रोयो मत, वर्ना मैं भी तुम्हारे साथ रोऊँगी । खाना खा लो, फिर मुझसे बतलायो कि तुम क्यों पकड़कर लाई गई हो । सचमुच तुमने...पर विश्वास नहीं होता कि कोई माँ अपने बच्चे को मार सकती है ।
अब वह फूट पड़ी । रोते-रोते बोली, कोई माँ मारे चाहे न मारे, मैंने तो अपनी बच्ची को मार डाला है बहन जी! यह बात सच है ।
-कैसे? मैंने आश्चर्य से पूछा।
-कैसे मारा, क्या बताऊँ...और वह फूट-फूट कर रोने लगी । मैं उसके पास बड़ी देर तक खड़ी रही । बहुत बार उससे खाने को कहा, पर उसने न तो खाया और न यही बतलाया कि उसने अपने बच्चे को क्यों और कैसे मारा । मैंने सोचा, इसके पास से जाऊँ तो शायद यह खाना खा ले और कुछ आराम भी कर ले । मैं अपने ओठे पर आकर लेट गई, और वहाँ कुछ देर तक पड़ी रही । एकाएक फाटक की घंटी बजी ओर फाटक खुला । मैंने देखा कि दो स्त्रियाँ रुपा को कहीं लिए जा रही हैं । पास ही खड़ी हुई कैदिन ने पूछा, रूपा को कहां लिए जा रहे हैं ये लोग?
वह धीरे-धीरे बोली, खूनी औरत है न इसलिए फांसी वार्ड में ले जा रहे हैं।
रूपा चली गई । पर मुझे उसका रोना, उसकी विषादभरी आँखें, उसका चेहरा भूलता न था । मन कहता था कि वह हत्यारिन नहीं है, पर मेरी आंखों के सामने वह फांसी वार्ड में गई, हत्या के जुर्म में पकड़कर आई, फिर अविश्वास के लिए कहां जगह थी?
धीरे-धीरे मैं रूपा को भूल चली थी । एक दिन अखबार के एक समाचार ने उस याद को ताजा कर दिया । समाचार था, ...गांव में रूपा नाम की स्त्री अपनी छह साल की बच्ची को लेकर कुएँ में कूद पड़ी...खबर होते ही गाँव वाले आ गए और माँ-बेटी को कुएँ से निकाला । बच्ची तो मर चुकी थी लेकिन रूपा को कोई हानि न पहुंची थी और वह बच्ची की हत्या करने के अपराध में पकड़कर जबलपुर सेंट्रल जेल में लाई गई । बच्ची को लेकर वह कुएँ में क्यों कूदी इसका कारण अज्ञात है ।
मैंने अखबार पढ़ा और जान गई कि हत्यारिन रुपा है । मेरे रहते ही दो महीने बाद एक रोज आजन्म कारावास का दंड लेकर रूपा फिर जेल में आ गई । दयालु मजिरट्रेट ने उसे फांसी न देकर आजन्म कारावास की सजा दी थी ।
रुपा सब स्त्रियों के साथ जेल में काम करती, मगर चेहरे पर विषाद की छाया बनी ही रहती । एक दिन मैं बीमार पड़ी और वह मेरे पास सेवा-सुश्रूषा के लिए भेजी गई । मैं करीब-करीब दो महीने बीमार रही । अस्पताल में मैं अकेली अपनी बच्ची के साथ रहती थी । रुपा दिन-रात मेरे पास रहती । मेरी बच्ची को वह बहुत ज्यादा प्यार करने लगी थी । बच्ची भी उसे घड़ी भर न छोड़ती थी । आश्चर्य तो यह था कि मेरी बच्ची साफ-साफ बोल न पाती थी, फिर भी रूपा उसकी सब बातें समझ लेती थी । एक दिन किसी ने बच्ची ममता को साफ न बोलने के लिए चिढ़ा दिया था और बेचारी उदास होकर सो गई थी । इसी चिंता में मुझे नींद न आ रही थी । जेल में एक बच्चा और था । उसे जेलवासिनी बहनें बहुत प्यार से रखतीं, उसके साथ खेलतीं, बातें करतीं, पर ममता साफ न बोल पाती थी, इसलिए उससे कोई न बोलता, उसे प्यार न करता, यहां तक कि खेलने के लिए सुंदर-सुंदर खिलौने, फल, मिठाई उस बच्चे को दिए जाते और ममता खड़ी-खड़ी टुकुर-टुकुर देखा करती और फिर रोती हुई दौड़कर मेरे पास आती और कहती, अम्मा ! भाभी ने बाबा को तस्वीर की किताब दी है, मिठाई दी है । अम्मा मुझे भी तस्वीर की किताब मंगा दो ।